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कविता

सपने में होना भी होना है होने जैसा

अशोक कुमार पांडेय


एक मुसलसल यात्रा के बीच मिली बापरवाह नींद में भी सपने आते हैं
सारी वजूहात हैं अवसाद में डूब जाने की

सारी वजूहात है तुम्हें आखिरी सलाम कर चुपचाप कोई तीसरी कसम खा लेने की
सारी वजूहात हैं मौत से पहले एक लंबी नींद में डूब जाने की
ऐसे हालात में तुम याद दिलाते हो वह अभिशप्त शब्द - मुखालिफत

वैसे इन दिनों एक यह भी तरीका है कि इसकी जगह लिखा जाय खिलाफत
और चुपचाप किसी खलीफा के दरबार में कब्जा कर ली जाए कोई जगह।

उनका किस्सा और है जिनकी / हारना किस्मत है / मुखालिफत फितरत

बेतार के तारों में उलझी कितनी ही आवाजें गूँजती हैं
कितने शब्द तैरते हैं सिलिकान शिराओं में दिन-रात
रोज कितने ही सवाल
कितने ही जवाब
कैसी आपाधापी
कैसी चुप
कड़वे
सच
मीठे
झूठ

आज मैं किसी ऐसे दोस्त के फोन के इंतजार में हूँ जिसे अपनी उस पुरानी प्रेमिका की याद आ रही हो अचानक जिसे मैं जानता था। आज मैं एक शराबी शायर का पाजामा पहनकर ऊँची आवाज में गाते हुए गुजरना चाहता हूँ तुम्हारी गली से और किसी दोस्त की छत पर देखना चाहता हूँ अपने मष्तिष्क की नसों को बिखरते हुए रेशा-रेशा।

मैं किसी गलत ट्रेन में चढ़ गया हूँ शायद। या फिर जिस सीट पर बैठा हूँ वह नहीं है मेरी। जिन कपड़ों में है इन दिनों मेरी देह वह किसी लाश की देह से उतारे हुए हैं शायद और उनकी गंध ने हर ली है मेरी देहगंध। मैं जिस घर में हूँ उसमें कोई कमरा मेरा नहीं। जो कुछ सबका था वह सब अब हुआ समाप्त। ले दे के सड़क ही बची है अंतिम शरणगाह, जहाँ बहुत भीड़ है और एक भयावह खालीपन।

आज इस शब हो जाए वह सब जो होना है
शब-ए-कयामत है कमबख्त किसे सोना है

मैं नींद में नहीं हूँ स्वप्न में हो सकता हूँ। वह दीवार जमींदोज हो चुकी है जिसके उस पार स्वप्न थे और इस पार सच। मैं उस दीवार के मलबे में धँसा पाँव निकालने की कोशिश में लगी चोटों के दर्द के सहारे फर्क करता हूँ ख्वाब और हकीकत में और दोनों बहते से लगते हैं खून की ताजा धार में।

होना इन दिनों दर्द की भाषा का एक विस्थापित शब्द है

मैं नीमबेहोशी में उठता हूँ और चलता हूँ तुम्हारी ओर
तुम इनकार कर दो मुझे पहचानने से
मैं खुद के होने से इनकार करने आया हूँ तुम्हारे पास
यह वस्ल की शब है इसे अलग होना है शब-ए-हिज्राँ से

ख्वाब पिन्हाँ हैं इस कदर मेरी नफस में कि
अपने साए के कफस से निकल आया हूँ...

 


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